कुछ सन्देशे

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Friday, 9 December 2016

बेखबर




1-
पत्थर–पत्थर 
दर्द भरा
नदियाँ- नदियाँ 
प्यासी
बादल- बादल   
घबराये है
मंजिल पर उदासी
जल्दी- जल्दी में 
यह सब
हो रहा बारहोंमासी



2-
छुट्टे सांड घुमते है
साहित्य और स्वर्ग में
रौदते है दाम्पत्य
भरे पेडों को
उन्हें खबर नहीं
कैसे कमल खिला था
अधजले पानी में,
वे तो दिलजले है
दूँढ देते चाँद
में भी धब्बा,
उधर बेखबर
चाँद को
रोटी समझकर
फावड़ा लिए
सो गया वह
कड़कड़ाती रातो में .   

Tuesday, 6 December 2016

छोटी सोच

काश ! 
मोदी, नीतीश 
और अखिलेश 
साथ-साथ होते
पूर्वांचल के पास 
तीन टिकियाँ
का मंगल सूत्र होता
और वे 
इस माटी के
हाथ, मुह  होते....
फिर न होता कोई दल
न होती कोई लीला
नेता और कवि 
तो रिटायर
कभी होते नहीं
यूँ ही ये शेरशाह होते ...
यूपी की सूरत निखर 
रही है रोज –रोज
बिहार में नारायणी बहा
रहे है खोज-खोज
तिरंगे वाली पार्टी होती
और मोदी अलम्बरदार होते ......
पूर्वांचल जो फैला है 
बिहार तक
यही के भइया 
बनते उपहास तक
तो इनके सम्मान में भी
चार चाँद होते...
गाँव खलिहान मील 
इन घुनो को भगाएगे
बुद्ध को बउक बनानेवाले
लद जायेगे
कब तक यशोगीत
के लोक गान होते ?    

Friday, 2 December 2016

एक दिन अचानक

एक दिन अचानक
आँख खुली तो पाया
गायब थे  
महुआ,जामुन,
गुलर और अमलतास.
गुम होने की सुचना थी
बरगद पर मडराते गिद्धों की,    
खरिहान का पुजवट, 
बसवारी में का गोहरा
और छानी की ओरीयों की.
   यह तो पता था कि
पंचवर्षीय सूखे के भेट
चढ़ गये गढ़ई के मेढक,
पर नहर के कतार पर खड़े
आम के पेड़ ,
सीसम के सूखे पत्ते,
साईबेरियन दिनों के
बास का घुठ्था व 
जेठ का इनार
कहाँ गये ? 
यकीनन 
उनके साथ
ही था जन्म से
पर मै गाँव को और 
गाँव को मुझे
पहचानने में 
दिक्कत हो रही है. 

Thursday, 17 November 2016

काली चिड़ियां

काली चिड़ियां
घूम रही है
कितनो का हक
चुग रही है
चिड़ियां  होकर भी
चिडियों का
जड़ समूल
 ही लील रही है
सोने की चिड़ियां
आयेगी
अब
तो
आश उठ
रही है .

Wednesday, 16 November 2016

टुच्चा कवि

लाचार कवि
सोच रहा
पहले क्या उठाऊं
बन्दुक
कि कलम
कि कुदाल
तभी
सरहद ने कायर
साहित्य ने टुच्चा कवि
अध्यात्म ने
अपात्र गृहस्थ कह दिया
एक बार कलियुग ने
दौड़ाया था
धरती रूपी गाय को
कुछ वैसा ही मंजर है .......

Thursday, 3 November 2016

एक सूचना

सियासत नहीं आयेगी
मिलने एल ओ सी से....
उसे  फुरसत कहाँ
दरबार की
कलाबाजियों से
खड़े धान ,पीले हाथ
,व्याकुल मन ,खामोश गलियां,
बेबश चेहरे ,पसीने का खून,
सिसकते आँगन,
लथपथ किलकारी,
अधजली अगरबत्तियाँ ,
कुरान के खुले पन्ने,
माँ की लालच में
ठिठके अन्न दाता
धन्य पहरुए,
सांसों  को खोजने आए खबरिये
चुकी बेचैन बादलों ने
जानना चाहा था सच
अत:अब सूचना समाप्त हुई

Wednesday, 2 November 2016

कुछ काँटे

हर फूल खोज रहा है
खुश्बू
बाजार में,
कुछ काँटों को और
ज्यादे तीखापन
चाहियें .